संजा लोक पर्व आज भी उतना ही लोकप्रिय

 संजा लोक पर्व आज भी उतना ही लोकप्रिय

संजा लोकपर्व आज भी उतना ही लोकप्रिय

संजा लोकपर्व विशेष कर मालवा,गुजरात,राजस्थान,निमाड़ आदि  अंचल में श्राद्ध  के पंद्रह या सोलह  दिनों में मनाया जाता है और उतना ही लोकप्रिय है | ये बात अलग है कुछ लोग आधुनिकता और स्वच्छता के नाम पर गोबर को हाथ नहीं लगाते  लेकिन जो लोग अपनी मिट्टी से जुड़े हुवे है वो आज भी इस लोकपर्व को बड़े धूम धाम से मनाते है | पहले कच्ची दिवाल  होती थी जिस पर गोबर से लिपाई  अच्छी होती थी आजकल पक्के घर हो गए | पहले गोबर भी कीटाणुओं से रहित होता था क्योंकि  जानवर अच्छी हरी घास खाते  थे आजकल दुनिया भर के केमिकल और मल आदि खाने से गोबर भी वैसा नहीं मिल पाता है | पहले हर घर में जानवर होने से गोबर को रोजाना ही उठाना पड़ता था जिससे कोई समस्या नहीं होती थी आज कल लोगो ने गाय बैल  रखना ही बंद कर दिया है खेती भी मशीन से होने लगी है और बच्चे भी अब गोबर को हाथ लगाने में सकुचाते है | कुँवारी  लड़किया इस पर्व को मनाती  है | संजा मानाने में बड़ी काकी भाभी और माँ इन लड़कियों की मदद करती है |  शहरों में तथाकथित सभ्य समाज को छोड़ दे तो मालवा में करीब करीब सभी जगह ये त्यौहार बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है | रोजाना लड़कियों द्वारा अपने हाथ से दीवाल पर  गोबर से संजा बनाई जाती है उस पर पत्तो और चमकीले कागज को चिपका कर सजावट की जाती है | लड़किया टोली में इकट्ठा  होकर सभी के घर घर जाकर संजा की आरती करती है और प्रसाद का वितरण होता है |जनसंख्या में लड़कियों की संख्या कम होने से भी कुछ कमी आई है | शादी होने के बाद बेटियों को इस पर्व का उद्यापन करने ससुराल से लाया जाता है | लड़के कई जगह बहनो की इस कार्य में मदद करते है जो फूल पत्ती ,कागज़ आदि की व्यवस्था कर देते है और प्रसाद  खाने में भी आगे रहते है | कहते  कि संजा की आरती करते वक्त लड़किया संजा माता से अपनी मनोकामना कहती जो संजा माता अवश्य पूर्ण करती है | संजा पर्व आज कल शहरों में कुछ संस्थाओ द्वारा प्रतियोगिता के रूप में भी करवाया जाता है जो शहरो में संजा का प्रचलन बढ़ाने के लिए है इसमें भी जमींन से जुड़े लोग ही भाग लेते है फिर भी अच्छा प्रयास है जो स्वागतयोग्य है |पूर्णिमा से अमावस्या तक चांद, सूरज तारे, कछुआ, संजा माता सहित विभिन्न आकृतियां बनाई जाती हैं। अंतिम दिन किला कोट बनाया जाता है। इसमें 16 दिन में बनाए सभी आकृतियों के चित्र बनाए जाते हैं।फिर सभी लोग कालाकोट को देखने घर घर जाते है |संजा के अंतिम दिन बनाए जाने वाले किलाकोट में राजपूत संस्कृति का पूरा प्रभाव है। मध्यकाल में किलाकोट के भीतर ही पूरा नगर बसा होता था, इसलिए जो किलाकोट बनाए जाते हैं। उनके पूर्ण प्रबंध का संकेत आकृतियों में होता है। किलाकोट में मीरा की गाड़ी बनाना आवश्यक समझा जाता है | माता पार्वती ने भगवान शिव को वर के रूप में प्राप्त करने के लिए खेल-खेल में इस व्रत को प्रतिष्ठापित किया था, तो कभी यह कि कुंवारी कन्याओं को सुयोग्य वर प्राप्त हो एवं तदुपरान्त उसका भविष्य मंगलमय व समृद्धिदायक हो इसलिए सांगानेर की आदर्श कन्या संजा की स्मृति में यह व्रत किया जाता है। संजा के गीतों में लड़किया संजा बाई को छेड़ती भी जैसे संजा तो तू थारा घर जा के थारी  माँ मारेगी…. … और जैसे संजा बाई का लाडा जी लूगड़ो  लाया जाड़ा  जी…… एक अपनत्व है लड़कियों और संजा के बीच |
जैसे कोई अपनी बड़ी बहन से मजाक करता है उसी तरह के गीत के माध्यम से लड़किया संजा से मजाक करती है | संजा में लड़किया अपना व्यक्तित्व देखते हुवे गीत गाती  जैसे वो खुद से कह रही हो की  छोटी सी गाड़ी  गुड़कती जाय जिमे बैठा संजा  बाई घागरो  घमकाता  जाए चुड़ैलों चमकाता  जाय इसमें उनकी खुद भी इस प्रकार से ससुराल जाने की इच्छा छुपी होती है | जैसे शर्मीली लड़किया अपने दादाजी से कहती है की हु तो जी जाव सासरे उसी प्रकार गीत में भी “हु तो नि  जाऊ  सासरिये ” और फिर दादाजी समझाते है  कि “हाथी  हाथ बँधायउ ,जा वो संजा सासरिये ” और अंत में संजा बाई को भोग लगाते  है और गाते है की “संजा तू जीम ले चुठ  ले जिमाऊ  सारी  रात ” गाकर संजा को भोजन करवाते है | और फिर संजा की आरती करते है | संजा इसलिए सौभाग्य का आदर्श प्रतीक ही नहीं, उनके लिए सजीव व्यक्तित्व सदृश्य है। संजा के गीतों का मूल स्वभाव (बालवृत्तियों से युक्त होकर भी) आदर्श के प्रति श्रद्धापूरित है।गीतों में मुखरित कल्याण कामना, माता-पिता, सास-श्वसुर, भाई-भावज, ननद, देवर-देवरानी और अंतत: ससुराल में ठाट-बाट से गमन आदि सभी मंगलसूचक हैं।

Rajesh Bhandari “babu”
104 Mahavir Nagar Indore
9009502734

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